Sunday, September 22, 2013

जन्मदिन का सन्देश

जन्मदिन का सन्देश 
जन्मदिन मानाने की परंपरा भारीतय संस्कृति में बहुत प्राचीन रही है. जन्मदिवस पर लोग दीप यज्ञ किया करते थे व गरीबों को भोजन वगरह करवाने की परम्परा थी. जो के आजकल बदल कर केक काट कर खुद खा लेने तक सीमित रह गयी है. वैसे मैं इस सब का विरोध नहीं करता पर हमारी संस्कृति  ने सिखाया है तमसो मा ज्योतिर्गमय मतलब अंधकार से प्रकाश की और जाएँ लेकिन अब मोमबत्ती बुझा कर हम प्रकाश से अंधकार की ओर जा रहे हैं. वैसे मैं किसी पर कमेन्ट नहीं कर रहा पर हमें अपने विवेक से काम लेना चाहिए 

मनुष्य जन्म भगवान का सबसे बड़ा उपहार है सृष्टि में  लाखों करोड़ों योनियाँ हैं धरती पर आकाश में पानी में निवास करने वाले अनगिनत पशु पक्षी जीव जंतु भगवान ने बनाये हैं. और इन सबमे इंसान ही एक ऐसा प्राणी है जिसे सबसे ज्यादा सुख सुवधाएँ मिली हैं हमें अतिरिक्त बुधि मिली है हमें और जीवों की तरह रोटी के लिए ज्यादा नहीं भटकना पड़ता. यह सब व्यवस्था भगवान ने इसलिए की है के हम और जीवों और अपने जैसे प्राणियों के लिए कुछ कर पायें. सबसे समझदार  और सुखी प्राणी होने के नाते हमारा यह कर्त्तव्य बनता है के हम और जीवों और समाज के लिए भी समय निकालें.  
हमारी संस्कृति में जीवन जीने के कुछ ढंग बताये गए हैं जिनपे मैंने भी चलने की कोशिश की है उनमे से कुछ का यहाँ पे वर्णन करूँगा
कर्मयोगहमें अपनी क्रिया पद्धति पर कड़ी नजर रखनी चाहिए जैसे हमारे काम करने में कोई दोष हों तो हमें उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए कर्मयोग की महत्वपूरण पद्धति है के हर दिन को नया जीवन और हर रात को एक नयी म्रत्यु समझना चाहिए सुबह जैसे ही आंख खुले तो मन ही मन दिन भर की योजना बना लेनी चाहिए एक क्षण भी बर्बाद नहीं करना चाहिए इसका मतलब यह नहीं नहीं के मनोरंजन नहीं करना चाहिए वह भी हमारी दिनचर्या का एक अंग है. और यह भी ध्यान में रखना चाहिए के सारा समय उपयुक्त कार्यों में खर्च हो धन और समय दो ही ऐसी शक्तियां हैं जो मनुष्य के पास सबसे अधिक महत्वपूरण हैं. उन्हें उपयुक्त तरीके से खर्च करके जीवन की सार्थकता का पथ सहज ही प्रशस्त हो जाता है. अगर कोई निश्चय किया है तो उसे अधुरा न छोड़ें. आलस्य, निंदा लापरवाही और आशंका अविश्वास जैसे दोष हमारे विकास में सबसे बड़े बाधक बनते हैं. यह अदृश्य शत्रु हमारा जितना नुकसान करते हैं उतना शायद दिखने वाले नहीं कर सकते. इन दुर्गुणों की बजाये सद्गुण जैसे कर्मठता नियमितता परिश्रम मधुर भाषण साहस श्रधा कृतज्ञता आदि को अपने जीवन में विशेष स्थान देना चाहिए. रत को सोते समय जीवन की समाप्ति का आभास होना चाहिए. आत्मिक शांति के लिए भगवान को धन्यवाद देना भूलों के लिए क्षमा मांगना और निमग्न होकर निद्रा माता की गोद में सो जाना और यह तभी संभव है जब ऊपर लिखे दुर्गुण दूर हो जाएँ विशेषकर आलस्य और लापरवाही.
ज्ञानयोग
मेरे विचार में यह दूसरा जीवन साधन है. विचारों में उच्चता,  आदर्शवाद की और चलने की प्रेरणा सत्य और असत्य की गुथी सुलझाने वाली विवेकशीलता जो साहित्य हमें प्रदान करे उसे पढना ही स्वध्याय है ऐसे ही विचारों को सुनना सत्संग है. ऐसे साहित्य पढना दिन में बहुत जरुरी है. जैसे शारीर पर मैल जमता है तो हम नहाते हैं अपना घर गन्दा होने पर उसकी सफाई करते हैं. इस संसार के दूषित वातावरण का जो दुश्पर्भाव हमारे ऊपर पड़ता है उसको साफ़ करने के लिए अच्छा साहित्य पढना बहुत जरुरी है. जिस तरह से शारीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन जरुरी है उसी तरह से दिमाग को स्वस्थ रखने के लिए ज्ञानवर्धक और अच्छा साहित्य पढना जरुरी है. संसार के समस्त कष्टों का एक ही कारन है अज्ञान. नहीं तो इंसान में इतनी ताकत है के वह अपना ही नहीं संसार में आने वाले सभी का जीवन समृधि सुख शांति और आनंद उल्लास से परिपूरन कर सकता है. सो हमारे जीवन में ज्ञान योग का एक विशेष स्थान है.

भक्तियोग
 हमें प्रतिदिन भगवान की उपासना करनी चाहिए और नाम रूप में जप ध्यान करने के अतिरिक्त प्रेम भाव का भी विकास करना चाहिए. जिसके मन में निस्वार्थ जितना प्रेम उमड़ता है वह परमात्मा के उतना ही करीब होता है. इस मार्ग पर चलते हुए मीरा ने तुलसी ने हनुमान जी ने अर्जुन सुदामा ने गोपियों ने भगवान को अपना साथी सहचर बनाने की सफलता प्राप्त की थी. यह प्रेम भावना की व्यावहारिक जीवन में दया करुना आत्मीयता उदारता सेवा सज्जनता के रूप में दिखती है. यह भी भक्ति का एक मार्ग है. धरती पर स्वर्ग का अवतरण का राम राज्य का लक्ष्य इस प्रेम भावना के विकास द्वारा ही संभव है. जन्मदिन के शुभ अवसर पर इस भक्तियोग का शुभारंभ हमें करना चाहिए. जिस परमात्मा के हमारे ऊपर इतने उपकार हैं उसके लिए थोडा सा समय जरुर निकलना चाहिए. पूजा पथ कथा कीर्तन करम कांड का सिर्फ इतना कारन है के हमारी परमार्थ मतलब दूसरों की सेवा सहायता करने की भावना को जगाएं. यह जगीं के नहीं इसको परखना हो तो हमें ऐसा देखना चाहिए के हम स्वार्थ से उठ कर परमार्थ या लोक कल्याण की कार्य में लगे हैं के नहीं. 

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